नज़राना इश्क़ का (भाग : 24)
फरी अपने ख्यालों में खोई हुई बैठी हुई थी, उसका मन अतीत के किनारों में बहता चला जा रहा था। विक्रम की माँ रजनी उसके साथ बैठी हुई थी। विक्रम कमरे के अंदर जाकर कुछ कर रहा था, वह किचन से थाल में सजाकर कुछ लाया, उस हॉल में उसकी खुशबू फैल गयी।
"क्या हुआ बेटा..! कुछ खाओ पीओ तो सही!" रजनी ने फरी के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।
"अं…! कुछ नहीं आंटी.. बस ऐसे ही थका सा लग रहा था।" फरी ने अपनी उलझन छिपाते हुए जवाब दिया।
"अच्छा वो सब ठीक है, अब कुछ खा लो फिर आराम करना..!" रजनी ने मुस्कुराते हुए कहा।
"हाँ! थोड़ा सा खा लो..! जानता हूँ घर पे थोड़ा अजीब लग रहा हूँ पर यहां मेरे साथ ही सौतेला व्यवहार किया जाता है यार..!" विक्रम ने फरी को खिलाते हुए आँखों में झूठे आँसू लाकर कहा।
"क्या कहा?" उसकी माँ की भौंहे तन गयी। "इसपर बिल्कुल भी यकीन न करना बेटा! एक नम्बर का झूठा है ये लड़का..!" कहते हुए विक्रम की माँ भी उसे अपने हाथ से खिलाने लगीं, उन दोनों की बातें सुन फरी की हँसी छूट गयी।
"बस भाई..! बस आंटी..! इससे ज्यादा खाई तो पेट फट जायेगा मेरा!" फरी उन दोनों को खिलाने से रोकते हुए बोली।
"बस इतना ही…! तभी तो सूखकर कांटा होती जा रही हो, थोड़ा और खा लो..!" रजनी उसे जबरदस्ती एक कौर और खिलाते हुए बोली।
"सच में आंटी! मैं पहले ही थोड़ा सा खाकर आयी थी, अब और कितना खाऊँ..!" फरी ने मासूम सी शक्ल बनाते हुए कहा, यह देखकर उन दोनों की हँसी छूट गयी, फरी भी उनके साथ हँसने लगी।
"विक्रम..! जाओ बिटिया को उसका कमरा दिखा दो!" रजनी ने मुस्कुराते हुए कहा।
"चलो, मम्मी और भाई ने तुम्हारे आने से पहले सारी तैयारियां कर ली है, तुम्हारे लिए स्पेशल कमरा भी रेडी है। अब चलो और थोड़ी देर आराम कर लो!" विक्रम फरी का हाथ खींचते हुए हँसकर बोला।
"चलती हूँ न भाई! अभी इतना भी नहीं खाया कि खुद से उठ न पाऊं..!" फरी ने हाथ छुड़ाकर खुद से उठते हुए कहा।
"चल फिर और खिला देता हूँ…!" कहते हुए विक्रम वहीं बैठ गया।
"भाई..!" फरी झल्लाई..। "मेरा मतलब वो नहीं था, उठ जाती न मैं खुद से…!"
"हीहीही चलो अब आराम कर लो।" विक्रम ने हँसते हुए कहा। दोनो वहां से चले गए, हॉल में केवल रजनी राह गयी थी जिनकी आंखों में आँसू बरबस ही छलक उठी थी। विक्रम फरी को कमरे में छोड़कर कहीं चला गया, फरी काफी देर तक बिस्तर पर बैठकर उसे घूरती रही मगर उसकी उलझन अब भी कम नहीं हुई थी।
"मैं जानती हूँ बेटा कि तुम उलझन में डूबी हुई हो…!" दरवाजा खोलते हुए रजनी ने कहा, उनकी आँखें नम थी।
"अ..ऐसा कुछ नहीं है आंटी जी, वो बस नींद नहीं आ रही थी।" फरी ने मासूम सा चेहरा बनाकर अपनी उलझनों को चेहरे से छिपाते हुए कहा।
"तुम लाख कोशिश कर लो बेटी, मगर तुम अपनी उलझन को छिपाने में कामयाब नहीं हो पा रही हो" रजनी ने फरी के चेहरे को गौर से देखते हुए कहा, फरी से कुछ कहते नहीं बना, उसने उनकी ओर देखने के बाद गर्दन नीची कर ली "तुम ये जानना चाहती हो कि मेरा चेहरा तुमसे कैसे मिलता है यही न…!"
फरी ने कोई जवाब नहीं दिया, रजनी ने उसकी ओर गौर से देखा, तब फरी ने सिर हिलाकर मौन स्वीकृति दी, उसकी आँखों में बेचैनी थी मगर वह हमेशा की तरह अपने दर्द को छिपाकर रखना चाहती थी।
"मुझे नहीं पता कि बात कैसे शुरू करूँ, कभी कभी समझ ही नहीं आता!" रजनी के माथे पर चिंता की लकीरें स्पष्टया नजर आने लगीं। "अगर सीधे सीधे कहूँ तो हमारा खून का रिश्ता है, मैं तुम्हारी मासी हूँ!" कहने के बाद रजनी चुप हो गई, पूरे कमरे में सन्नाटा फैल गया। फरी को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था।
"ये कैसे हो सकता है, अगर आप उनकी बहन हो तो मम्मी ने इसके बारे में कभी कुछ बताया क्यों नहीं..!" फरी की आँखों में नमी थी। उसका दिल इस बात को स्वीकार कर लेना चाहता था, क्योंकि सुबूत भी सामने था मगर दिमाग ऐसी किसी बात पर रत्तीभर यकीन करने से भी रोक रहा था।
"तुम उस वक़्त बहुत छोटी थी जब वो गुजरी, वैसे भी उनके बारे में तुम केवल सुनी सुनाई बातें ही ज्यादा जानती हो, वास्तविकता से तो तुम अनजान ही हो..!" रजनी ने कहा, उनके स्वर में कठोरता झलकने लगी।
"मैं आज आपसे पहली बार मिली हूँ, अगर मैं मान भी लूँ कि सच्चाई वो नहीं है जो मैं जानती हूँ तो सच क्या है?" फरी ने बेड से उठकर कमरे में टहलते हुए पूछा, उसके चेहरे पर अविश्वास के भाव थे।
"तुम मिली नहीं हो फरी, मिलाई गयी हो, तुम खुद से यहां नहीं आयी बल्कि मैंने तुम्हें बुलाया है। कल जब विक्रम अपने दोस्तों की तस्वीर दिखा रहा था, उसमें तुम्हें देखकर ऐसा लगा जैसे मैंने तुम्हें कही देखा है। रात में जब मैंने आईने से गुजरते हुए अपना अक्स देखा तो मुझे समझ आ गया कि मैंने तुम्हें कहा देखा है, तुम बिल्कुल अपनी माँ करुणा की छाया हो, और हम दोनों बहनों में दो साल का अंतर होने के बावजूद भी हमारे नैन नक्श में इतनी अधिक समानता थी कि हम जुड़वा नजर आते थे। जैसे ही मुझे यह समझ आया मैंने विक्रम को आज सुबह ही तुम्हें लाने के लिए भेज दिया।" रजनी ने एक एक शब्द पर जोर देते हुए कहा, उनकी बातें सुन फरी के चेहरे पर हैरत के भाव उमड़ आये, उसे कुछ भी समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या जवाब दे, उसके मन में बस सवालों के अंबार बरस रहे थे।
"आप मेरी मां की बहन हो? मतलब उनकी दीदी सा हो? पर क्या हुआ था, मुझे कभी आप लोगो के बारे में पता क्यों नहीं चला? आप लोग कभी मुझसे मिलने क्यों नहीं आए? मम्मी के गुजरने पर भी उनके मायके से कोई नहीं आया था..! आखिर क्यों? मेरी मम्मी के साथ ही ऐसा सौतेला व्यवहार क्यों?" फरी की आंखो में से आंसू छलक उठे।
"हाँ! तुम्हारी माँ करुणा मुझसे दो साल छोटी थी। परिवार में सबकी लाड़ली थी, पिताजी तो उससे इतना प्रेम करते थे कि उसके बाद उन्होंने और कोई औलाद ही नहीं होने दिया। वह चंचल सी बहती हवा का झोंका थी, हर समय इधर से उधर गुजरती रहती। उम्र बढ़ने के साथ उसके यौवन में निखार आता गया वह आसपास के पूरे क्षेत्र में सबसे खुबसूरत नवयौवना थी, मगर बड़ी होने के बाद भी उसकी हरकते बच्चों की तरह ही थी। वह कभी भी नादानी करने से न चूकती। हमारी गलतियों पर माता जी हमें अवश्य डांट दिया करती थी परंतु पिताजी के लिए जैसे हम कभी बड़े ही नही हुए..! हमारा कारोबार दिन दोगुना रात चौगुना बढ़ रहा था। कुछ वर्षों बाद मेरी शादी पिताजी के प्रिय मित्र के बेटे सिद्धार्थ जी यानी विक्रम के पापा के साथ हो गई, उसके बाद मेरा मायके जाना बंद हो गया। मेरी शादी के दूसरे साल जब मैं गर्भवती हुई तो मायके से करुणा आई, उसकी चमक दमक पहले से और ज्यादा बढ़ गई थी। पहली बार मैंने उसकी आंखों में एक अजीब सी चमक देखी, जब मैंने उससे पूछा तो उसने मुस्कुराकर मना कर दिया। पर हम दोनो बहने, बचपन से बहनों से ज्यादा सखियां रही थी इसलिए वह मुझसे ज्यादा देर तक न छिपा सकी, जब उसने मुझे बताया तो मुझे यकीन न हुआ..! वह किसी से प्यार करती थी, यह सुनकर मैंने उससे पूछा भी कि कहीं वो मजाक तो नहीं कर रही पर उसकी आंखे गवाह थी वो सच में किसी से प्यार कर बैठी थी। मगर उसने लड़के का नाम नहीं बताया, इधर मैं माँ बनने वाली थी उधर मेरी बहन किसी से प्यार करने लगी थी, मैंने उस लड़के के बारे में जानने की लाख कोशिश की मगर कभी कुछ पता नहीं चल पाया क्योंकि तब सिद्धार्थ जी घर से बाहर निकलने से बिल्कुल मना कर दिया था। मैंने करुणा को अपनी कसम से डाली मगर वह उसके प्यार में डूबकर इस कदर अंधी हो चुकी थी कि उसने अगले ही दिन मेरा घर छोड़ दिया। फिर तीन दिन घर से खबर आई कि करुणा घर नहीं पहुंची..! पिताजी को यह जानकर बहुत धक्का लगा, उन्हे करुणा की चिंता सताने लगे, यही चिंता कब हृदयाघात के रूप में उन्हें बेड पर ला पटकी कुछ पता न चला। डॉक्टर्स ने बताया यह मामूली अटैक था मगर बड़े अटैक्स की भी संभावना थी इसलिए उन्हें घर पर बेड रेस्ट करने को कहा।
पिताजी के हार्ट अटैक की खबर अखबारों में भी फैल गई मगर करुणा तब भी ना आई, पिताजी की प्यासी आंखें उसे देखने को तरस रही थी, उस समय मेरा नौवां महीना चल रहा था, बहुत जिद करने के बाद सिद्धार्थ जी मुझे लेकर पिताजी के पास गए। पिताजी का हंसता चेहरा मुरझा चुका था, वे सुबह शाम बस करुणा को पुकारते, उसके नाम खबर भी छपवाई गई मगर वो न आई..! पिताजी की खराब हालत की वजह से माताजी की भी हालत खराब होने लगी, कंपनी के हालात भी बिगड़ने को थे तब पिताजी ने सिद्धार्थ जी को बुलाकर कम्पनी और घर की चाभी इनके हाथ सौप दी। सिद्धार्थ जी ने भी पूरे जी जान से करुणा को खोजा मगर वो न मिला। मेरा वक्त करीब आता जा रहा था, पिताजी की हालत देखकर सभी बहुत दुखी थे, एक दिन सुबह जब सिद्धार्थ जी कंपनी की ओर जा रहे थे तब करुणा उन्हें एक नवयुवक के साथ आते दिखी, वे यह बात पिताजी को बताने आए, इससे पहले उनकी बात पूरी होती करुणा उस लड़के के साथ वहां आ गई, उसके हाथ में कुछ कागज़ात संबंधी कागज थे। पिताजी ने एक नज़र करुणा को देखा मगर उनकी आंखों में वह करुणा नजर न आई जो उनको अपनी जान से प्यारी हुआ करती थी। करुणा के कुछ बोलने से पहले उस लड़के कलम और वे कागजात आगे कर दिए, पिताजी उठने की असफल कोशिश करते हुए उन दोनो की ओर देखा और बिन कहे ही सब भांप गए.. उस कमरे में चारों ओर सन्नाटा फैला हुआ था। पिताजी ने बिना कोई देरी किए सारे कागजातों पर हस्ताक्षर कर आधी जायदाद करुणा के नाम कर दिया। करुणा उस दिन जैसे पत्थर की बन गई थी, जिस इंसान के हल्के से चोट लगने पर वह पूरे घर को सिर पे उठा लेती थी उसकी आंखो में आंसू देखकर भी अनदेखा करते हुए वह वहां से गुजर गई..! हमेशा हमेशा के लिए.. उस घर से और हम सबके दिलों से भी..!
उसी शाम को पिताजी हम सबको छोड़कर इस दुनियां से चले गए, और उसकी अगली सुबह ही वैष्णव का जन्म हुआ। पिताजी अपने नाती के लिए यही नाम चाहते थे इसलिए उसका नाम वैष्णव रखा गया। पर करुणा तब भी लौटकर नहीं आई, पिताजी के जाने का दुख और मां बनने की खुशी.. मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूं पर करुणा के व्यवहार ने मेरी अंतरात्मा तक को चीर दिया था, उसने एक ऐसा घाव दिया जिसे समय भी कभी नहीं भर सकता। धीरे धीरे समय गुजरा और हमने वह जगह छोड़ दी और यहां आ गए, फिर उस दिन के बाद करुणा कहां गई किधर गई किसी को पता नहीं चला..!" रजनी की आंखें आंसुओ से सराबोर थी, उसके चेहरे पर दुःख और घृणा के भाव उपजे हुए थे। पुरानी यादों को ताजा करते करते उनकी सांस फूलने लगी, फरी ने जल्दी से गिलास में पानी लाकर उन्हें पिलाया तब वे कुछ सामान्य हुई। फरी की हालत ऐसी थी कि मानो जैसे कोई शब्द ही नहीं बचे। वह न तो सांत्वना देने की हालत में थी, ना ही इस कठोर कंटीले सत्य को स्वीकार करने के पक्ष में..! उसने अपनी मां को हरदम अकेला और संघर्ष करते हुए ही पाया था, उन्हें देखकर कौन कह सकता था कि वे कभी चंचल हवा सी बहने वाली रही होंगी। उसकी आंखों से नीर झर झर कर बह रहा था पर वह जानती थी उसका दुख फिलहाल रजनी के दुख से बड़ा नहीं था।
"आई एम सॉरी आंटी..!" फरी के मुंह से बस यही शब्द निकले, उसकी आंखें जमीन में गड़ी हुई थी, अब उसकी हिम्मत रजनी की ओर देखने की भी नहीं हो पा रही थी।
"कोई बात नहीं बेटा! तुम क्यों सॉरी बोल रही हो, को नियति में लिखा होता है वह होकर ही रहता है।" रजनी ने फरी के सिर पर हाथ रखते हुए अपने आंसू पोछकर कहा। "ये मत समझना कि किसी और की गलतियों का भुगतान तुम्हें करना पड़ेगा। मैंने तुम्हें बस इसलिए बुलाया ताकि तुम्हें तुम्हारा परिवार दे सकूं!" रजनी ने हल्की मुस्कान के साथ कहा।
"मुझे नहीं पता था..! मम्मी के गुजरने के बाद मैं जगह जगह भटकती रही, पापा कहने का तो मुझे कभी मौका ही नहीं मिला, या फिर ऐसा इंसान ही नहीं मिला जो मुझे बेटी कह सके! मैं बाबा के साथ जगह जगह भटकती रही, पर वे अब भी जहां जाती हूं मुझे चैन से नहीं जीने दे..! पता नहीं वो क्या चाहते हैं…!" फरी ने टूटे हुए शब्दों में अपने दिल की बात कही।
"मुझे ये खबर कई साल बाद पता चली, जब अखबार में अभिनव राजपूत नाम के एक बिजनेसमैन पर लेख छपा, मैंने उसे देखते ही पहचान लिया ये वही लड़का था जिसने हमारी करुणा को पूरा बदल दिया था, उसके अंदर की दया, ममता और करुणा को मार डाला था.. मगर जब नीचे के अंश पढ़े तो मेरे होश उड़ गए.. करुणा भी इस दुनिया में नहीं रही थी, उसमे उन दोनो की बेटी यानी तुम्हारा थोड़ा सा जिक्र था तब से मैं अपने स्तर पर तुम्हारी तलाश करने लगी पर जब एक साल लगातार कोशिश करने पर भी पता नहीं लगा तो मैंने वह कोशिश भी छोड़ दी। बस अचानक ही तुम मिल गई और आज मेरे सामने हो…!" रजनी ने फरी को गौर से देखते हुए कहा।
"हूं..!" फरी ने सिर झुकाए हुए बस इतना ही कहा।
"अब उदास होने की जरुरत नहीं है बेटा! पर ध्यान रखना ये बात बस तुम्हारे और मेरे बीच ही रहनी चाहिए!" कहते हुए रजनी जी ने उसके बालों को सहलाते हुए लहरा दिया।
"जी आंटी..!" फरी ने उठते हुए कहा।
"आंटी नहीं बेटा..! मां कहो..! आखिर मैं भी तुम्हारी आधी मां हूं..! भले आज से पहले तुम मुझे नहीं जानती थी!" रजनी ने भी उठते हुए कहा।
"जी..!"
"जी नहीं..! मां कहो..!"
"बड़ा मुश्किल है..! अब तो जैसे खुद पर ग्लानि सी हो रही है। मेरा यहां रहना दूभर हो रहा है।"
"तुम खुद को तकलीफ देना बंद करो! तुमने पहले ही औरों के किए गुनाहों का फल भुगता है, अब ऐसा करके खुद को और तकलीफ मत दो..!"
"पर मैं जिस मां को जानती थी मानती थी उसका क्या करूं…..!" फरी चीखते हुए बोली, उसके सीने में छिपा दर्द लावा बनकर आंखो के रस्ते चेहरे पर उतरने लगा।
"जानती हूं..! कभी कभी हम उस चीज को अपनी गलती मान लेते हैं जो हमने कभी किया ही नहीं, और कभी कभी उस चीज को सही मान लेते हैं जिसके बारे में हम जानते ही नहीं! उस वक्त मैं शायद अपना कर्तव्य पूरा नहीं सकी थी, अब मुझे भी एक मौका मिला है.. इसे मत छीनो बिटिया..!" रजनी ने उसके कंधो पर हाथ रखते हुए भारी गले से कहा। "कभी कभी मैं सोचती हूं कि काश उसी वक्त सब ठीक हो गया होता तो क्या होता… आखिर किसकी गलती है! ये बस तुम्हारी मां की गलती नहीं थी बेटा..! तुम्हारी मां के अलावा वो किसी की बहन और बेटी भी गलती थी फिर इस गलती जिम्मेदारी उनके सिर भी आती ना?
मैं बचपन से एक प्यारी सी बच्ची चाहती थी, इसलिए करुणा को भी गुड़िया की तरह रखा, भले वो मुझसे बस दो साल छोटी थी। शादी के बाद लगातार दो बेटे ही हुई, तीसरी बार गर्भवती होने पर मैने श्री गोविंद जी से मन्नत मांगी, विनती की कि इस बार मुझे बिटिया ही देना पर शायद नियति को कुछ और मंजूर था.. मेरे गर्भ में बेटी होने के बावजूद मैं एक बेटी की मां न बन सकी, शिशु गर्भ में ही दम तोड़ चुका था, जिसके बाद मुझे बचाने के लिए ऑपरेशन द्वारा गर्भाशय को निकाल दिया गया। जब मुझे होश आया तो मेरी वो दुनियां मेरा वो सपना सब उजड़ चुका था।
आज इतने समय बाद तुम्हारे रूप में गोविंद हरि मुझे उसी सपने को जीने का मौका दे रहे हैं, यह अवसर मुझसे मत छीनो बेटा… ये कान अपनी बिटिया के मुंह से मां सुनने को तरस गए हैं..!" रजनी ने भारी स्वर में कहा, उनके चेहरे पर हल्की सी धूमिल रेखा नजर आ रही थी, फरी उनकी आंखों में उभर रहे अपने अक्स को निहार रही थी।
"मां…!" उसके मुख से धीरे से बोल फूटे! रजनी ने उसे अपने सीने से लगा लिया। दोनो काफी देर तक एक दूसरे के गले लगे रहे।
क्रमशः…..
🤫
28-Feb-2022 12:36 AM
ओहो अतीत की परतें भी न कितनी गहरी दुखभरी हैं।
Reply
मनोज कुमार "MJ"
28-Feb-2022 01:43 PM
Ji shukriya
Reply
Pamela
03-Feb-2022 03:08 PM
Nicely...
Reply
मनोज कुमार "MJ"
20-Feb-2022 03:35 PM
Thank you so much ❤️
Reply
Seema Priyadarshini sahay
02-Feb-2022 05:41 PM
बहुत बढ़िया
Reply
मनोज कुमार "MJ"
20-Feb-2022 03:35 PM
Thank you so much
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